गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

"बेटी होने का डर"

बचपन में तो ,
कभी एहसास ही न हुआ ,बेटी होने का डर
पिता जी कहा करते थे अक्सर
तू मेरा बेटा नही बेटी ही है ,मगर उनसे कुछ अलग ,
जो डर जाती है समाज से ,अंधी परम्पराओं से ,पुरुष वादी रुढीवादिताओं से ,
तुझे सिर्फ आगे बढना है
इन सब बातों को पीछे छोड़ कर ,
आत्मविश्वास से मंजिल की तरफ ,
उगते सूरज को सभी सलाम करते है
तुझे भी सलाम किया जायेगा एक दिन
पर जवानी की दहलीज पर बढते ही
दहलीज से लगाकर कालेज तक
सताने लगा बेटी होने का डर
प्रतिबंधित होने लगे कपडे
मुश्किल होने लगा निकलना
लोग फब्तियां कसते ,हर गैजेट के इस्तेमाल पर
पिता जी से भी शिकायत करते अक्सर
शायद उन सबको था बेटी के बिगड़ने का डर
मुझे सामना करना पड़ता लोगो की गन्दी निगाहों का ,
भीड़ में तो और भी सताता
मुझे बेटी होने का डर
छेड़खानी ,फब्ती और सीटियाँ
ये तो सब अब आदत बन गयी थी
पहले पहल मेरा बेटी होना
और अब मेरी सुन्दरता ही मेरी दुश्मन बन गयी थी ,
अकेले में ,अंधरे में
सताता मुझे वो डर
जो अख़बारों में पढ़ा करते थे अक्सर (बलात्कार)
पिता जी ढाढस बंधाते,
नौकरी शादी के बाद ठीक हो जायेगा सब कुछ
वो ये कहते थे इसलिए शायद
उन्हें एहसास न था
बेटी होने का डर
ससुराल से लगाकर नौकरी तक
सिलसिला वाही चल रहा था अब तक
पर लोग अब दूर से नही
वाही बाते पास आ के कहते थे
लोग सिमित थे अब भी मेर बेटी होने तक
मुझे लगता है अंतिम साँस तक
सताता रहता है
"बेटी होने का डर "

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